सम्पूर्ण चाणक्य नीति | Chanakya Niti PDF In Hindi

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चाणक्य नीति दर्पण, सूत्राणि, अर्थ और विवरण – Chanakya Niti PDF Free Download

चाणक्य नीति

२५०० वप ई० पू० घणव के पुत्र विष्णुगुप्त न भारतीय राज नयिका को राजनीति की शिक्षा देन के लिए अथशास्त्र लघु घाणक्य, वृद्ध चाणक्य चाणक्य नीति शास्त्र आदि ग्रंथो के साथ याप्यायमान चाणक्य सूत्रो का निर्माण किया था ।

समाज को नीति सिखाना वस्तुत समाज के अविभाज्य अगो मूल भूत इकाई अर्थात व्यक्तियो को ही राजनीति सिखाना है। राजनीति म ‘सर्व पदा हस्तिपदे निमग्ना के अनुसार मानव सतान का मनुष्यता से समद्ध वरन वाले सपूर्ण शास्त्र व धम स्वभाव से सम्मिलित हैं। राजनीति पर ही समस्त धर्मों के पालन का नायित्व है ।

राजनीति का स्वरूप यही है कि आवीक्षिकी यी व वार्ता तीनो के योग क्षम दड म ही सुरक्षित रहते हैं। मसार दडमय होन पर ही आत्म विद्या मं रत होता है अयथा नही । उस दड नीति का उपदेष्टा शास्त्र भी दड़ नीति कहलाता है ।

चाणक्य के व्याख्यायमान सूत्र

१ जिनात्मा सर्वार्थ सयुज्येत । जितात्मा नीतिमान लोग समस्त सपत्तियो मे मपन्न होकर रहे ।

२ सम्पाद्यात्मानमविच्छेन सहापयान ।राजा को अपने राजोचित गुणो से सपन्न बनाकर अपने ही जैसे गुणों सहायको या महधर्मियों को साथ रखनर राजभार नैना चाहिए।

३ अविनीत स्नेह मात्रेण न मत्रे कुर्वीत | अविनीत व्यक्ति को केवल स्नेही होने से हितकारी रहस्यो की आलोचना में सम्मिलित न करे।

४ प्रामादाद द्विपता वशमुपपास्यति । यदि राजा या राज्याधिकारी मत्ररक्षा मे थोडा सा भी प्रमाद करेंगे अर्थात् मत्र सुनने के अनधिकारी व्यक्तियो से क्तव्य की गोपनियता को सुरक्षित न रख सकेंगे तो वे अपना रहम्य शत्रुओ को देकर उनक वश मे चले जाएगे ।

५ मन चक्षुपा पर छिद्राण्यवलोकयति । विजोगीषु राजा लोग मत्रियो की परामर्श रूपी आख से प्रतिपक्षियों को राष्ट्रीय निबनताओ को देख लेते हैं ।

६ आपत्सु स्नेह संयुक्त मित्रम | विपत्ति के दिनो मे (जबकि सारा ससार विपदग्रस्त को विपान होन के लिए अकेला छोड भागता है) सहानुभति रसन वाले लोग मिन कहलाते हैं।

७ न चालसस्य रक्षित वियपते । अलस सत्यहीन प्रय नहीन व्यक्ति का देववश सचित राज्य श्वय कुछ काल तक सुरक्षित दोखने पर भी उसके बुद्धिमाद्य से वृद्धि को प्राप्त नहीं होता ।

८ तस्वविषयकत्येष्वायत्तम । स्वराष्ट्र व्यवस्था तत्र कहाती है और वह केवल स्वराष्ट्र सबधी कर्तव्यो से सवद्ध रहती है ।

९ एकातरित मित्रमिष्यते । निकट वाले शत्र राज्य मे अगला राज्य जिसकी हमारे शत्रु से शत्रुता रहना आवश्यक स्वाभाविक है, उस शत्रु के विरुद्ध स्वभाव मे ही हमारा मिन बन जाता है।

विवरण – किसी शत्रु से शत्रुना करने वाले अनेक राष्ट्रो का परम्पर मित्रता बधन होना स्वाभाविक है।

१० सुतस्य मूल पम । घम (नोति या मानवोचित कर्तव्य का पालन) सुख का मूल है।

११ धमस्य मूलमय । धम का मूल अथ है-धम अर्थात् नीतिमत्ता को सुरक्षित रखने में राज्यधी (अर्थात् सुदढ सुपरीक्षित सुचितित राज्य व्यवस्था) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जगत को धारण करने (जगत को ऐहिक अभ्युदय तथा मानसिक उत्कपं देने) वालों…….आगे पढ़ने के लिए किताब डाउनलोड करे

लेखक राधाकृष्ण श्रीमाली-Radhakrishna Shrimali
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 154
Pdf साइज़1.8 MB
Categoryअर्थशास्त्र(Economy)